‘तुनतुनिया’ से लेकर ताजपोशी तक, लालू यादव की सियासी यात्रा का दिलचस्प सफ़र

लालू प्रसाद यादव - नाम ही काफी है। कहते हैं, जिसे ना जीतने का गुरूर था, और न हारने का डर, वही था लालू प्रसाद यादव। वही लालू, जो एक दिन बिहार की तक़दीर बन गया।

एक ऐसा किरदार जिसने राजनीति को सिर्फ करियर नहीं, तमाशा और तेवर बना दिया। आज जब लालू 77वें साल में हैं, तो उनके जीवन के पुराने पन्ने पलटना उतना ही दिलचस्प है जितना उनके भाषणों की कोई लाइन।


सभा छोड़ गए थे पुलिस भर्ती में

लालू प्रसाद का सियासी सफर किताबों जैसा नहीं, किस्सों जैसा है - जिनमें मज़ाक भी है, संघर्ष भी। छात्र राजनीति में उभार के दौरान एक बार जब उन्हें पटना यूनिवर्सिटी की सभा में बोलना था, वे वहां नहीं पहुंचे।

खोजबीन पर पता चला, जनाब पुलिस भर्ती के टेस्ट में चले गए थे। जब दोस्त नरेंद्र सिंह ने पूछा, तो बोले, “पुलिस में रहेंगे तो बूट मिलेगा, तनख्वाह मिलेगी और यूनिफॉर्म भी... फिर राजनीति करने की जरूरत क्या?”

लेकिन शायद किस्मत को वर्दी नहीं, वोटों की ताकत वाली कुर्सी पर बैठाना मंजूर था। वो भर्ती तो हाथ से निकल गई, लेकिन लालू की किस्मत की खिड़की खुल गई - राजनीति की दुनिया में।


“कुछ पइसा-वइसा दीजिए, अभी तुनतुनिया नहीं बजा है…”

लालू की पढ़ाई में दिलचस्पी नहीं थी, लेकिन दिलों को जीतना उन्हें आता था। पटना यूनिवर्सिटी में छात्रों के बीच उनकी पकड़ मजबूत होती जा रही थी। क्लास के दौरान अचानक उठकर कह देना,

"कुछ पइसा-वइसा दीजिए, अभी तुनतुनिया नहीं बजा है..." यानि भूख लगी है, जेब खाली है - मासूमियत और मुहावरे का ये मेल उन्हें औरों से अलग करता था।


पुलिस नहीं, क्लर्क बने... फिर लौटे राजनीति में

एक समय ऐसा भी आया जब लालू ने छात्र राजनीति छोड़कर पशु चिकित्सा महाविद्यालय में क्लर्क की नौकरी कर ली। लेकिन “जो खून में राजनीति लिए पैदा होता है, वो बाबूगिरी के फार्म में फिट नहीं होता।”

1973 में सुशील मोदी के कहने पर वे फिर छात्र संघ का चुनाव लड़े - अध्यक्ष बने और इतिहास रच दिया।


जोड़-तोड़ की कहानी, कैसे बन गए CM?

1990 में जनता दल की सरकार बनने वाली थी। प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह की पसंद रामसुंदर दास थे, लेकिन लालू अपने सामाजिक समीकरणों के सहारे आगे बढ़े।

“राजनीति में मौके नहीं, मौके की सवारी करनी पड़ती है।”

लालू ने वही किया।

चंद्रशेखर के साथ बैकडोर समझौता, दलित बनाम पिछड़ा समीकरण, और अंत में तीसरे उम्मीदवार के चलते वोटों का बंटवारा - ये सब लालू की कुर्सी की सीढ़ियां बनीं।

10 मार्च 1990 को गांधी मैदान में उन्होंने मुख्यमंत्री पद की शपथ ली - वहीं जहां 16 साल पहले जेपी की सभा में भीड़ देखकर वे मंत्रमुग्ध हुए थे।


“हम चीफ मिनिस्टर हैं, सब जानते हैं”

लालू की शैली अलग थी, बोली ठेठ, लेकिन असरदार। ‘हम चीफ मिनिस्टर हैं, सब जानते हैं। जो कहते हैं, वही करो’ - ये उनका संदेश था नौकरशाही को।

उनकी लोकप्रियता का आलम ये था कि लोग उनके बाल कटवाने का तरीका कॉपी करते थे। वे बेलौस थे, बेमिसाल थे, और उस दौर में बेवजह नहीं, बल्कि वजह बनकर छाए हुए थे।


जंगलराज और चारा घोटाला

कहावत है कि “जिस डाल पर बैठे हो, उसे काटना सबसे बड़ी भूल होती है।”

लालू वही भूल कर बैठे। चारा घोटाले ने उनकी छवि को भारी नुकसान पहुंचाया। 1997 में जेल गए। सत्ता की कमान राबड़ी देवी को दी।

15 साल के शासन को ‘जंगलराज’ कहा गया। भ्रष्टाचार, अपराध और कुशासन के आरोपों से वे उबर नहीं पाए।


अब सिर्फ एक ख्वाहिश - तेजस्वी की ताजपोशी

आज लालू बीमार हैं, लेकिन राजनीति से रिटायर नहीं हुए। किडनी ट्रांसप्लांट के बाद भी वे पर्दे के पीछे से रणनीति तय कर रहे हैं।

बेटे तेजस्वी को मुख्यमंत्री बनते देखने की अंतिम राजनीतिक इच्छा उन्हें आगे बढ़ने की हिम्मत दे रही है।

तेज प्रताप को दरकिनार कर वे परिवार और पार्टी, दोनों का संतुलन बना रहे हैं। “राजनीति में जिंदा रहने के लिए शोर नहीं, सोच चाहिए। लालू ने दोनों रखा - शोर भी और सोच भी।”

लालू प्रसाद यादव का जीवन किसी लोक कथा से कम नहीं। जिसमें ‘एक साधारण लड़का कैसे असाधारण नेता बनता है’, ये कहानी बार-बार सुनने लायक है।

आज जब बिहार फिर नए मोड़ पर खड़ा है, लालू का अतीत और तेजस्वी का भविष्य साथ-साथ चलता नजर आता है।

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