बिहार में इस वक्त एक ऐसा सरकारी कदम चर्चा में है जिसने न सिर्फ राज्य बल्कि दिल्ली तक की राजनीति को हिला कर रख दिया है। नाम है SIR यानी स्पेशल इंटेंसिव रिवीजन। ये प्रक्रिया इसलिए शुरू की गई कि मतदाता सूची को दुरुस्त किया जा सके।मगर अब सवाल ये उठ रहे हैं कि क्या इसके नाम पर लाखों लोगों को वोट देने के अधिकार से वंचित किया जा रहा है।क्या वाकई 71 लाख वोट खतरे में हैं?चुनाव आयोग की रिपोर्ट के मुताबिक अब तक 98 प्रतिशत मतदाताओं को कवर कर लिया गया है, मगर इसी रिपोर्ट में ये भी दर्ज है कि करीब 71 लाख लोगों के नाम मतदाता सूची से हट सकते हैं।इनमें शामिल हैं लगभग 15 लाख लोग जिन्होंने फॉर्म तो भरे मगर वापस नहीं किए, 20 लाख जिनका निधन हो चुका है, 28 लाख जो स्थायी रूप से विस्थापित हो चुके हैं और 7 लाख जिनके नाम दो जगह दर्ज हैं।मतलब साफ है, अगर बचे हुए दो दिनों में ये फॉर्म नहीं जमा होते, तो लाखों लोग अगले चुनाव में वोट नहीं दे पाएंगे।अब विरोध सिर्फ विपक्ष का नहीं रहादिल्ली में संसद का मानसून सत्र चल रहा है और लगातार तीन दिन से विपक्ष इस मुद्दे को लेकर हंगामा कर रहा है। मगर अब ये विरोध केवल विपक्ष का नहीं रहा। सत्ताधारी गठबंधन के नेता भी SIR को लेकर असहज नजर आने लगे हैं।कांग्रेस सांसद मणिकम टैगोर ने X पर लिखा कि वो इस मुद्दे को फिर लोकसभा में उठाएंगे और कहा कि 'इंडिया गठबंधन इस लोकतंत्र पर हो रहे हमले पर चर्चा की मांग करता है'।आम आदमी पार्टी के सांसद संजय सिंह ने भी राज्यसभा में नियम 267 के तहत कार्य स्थगन नोटिस देकर बहस की मांग की है।जब अपने सांसद ने भी खोला मोर्चाबिहार के बांका से सांसद और जेडीयू नेता गिरिधारी यादव ने इस पूरी प्रक्रिया को लेकर जिस तरह से नाराज़गी जताई, उसने सबको चौंका दिया।उन्होंने कहा, 'ये SIR हम पर जबरदस्ती थोपा गया है। चुनाव आयोग को बिहार का भूगोल और इतिहास कुछ नहीं पता।'ये बात उन्होंने सिर्फ बतौर सांसद नहीं, बल्कि एक आम नागरिक के रूप में कही। गिरिधारी यादव ने तो यहां तक कहा कि उन्हें खुद दस्तावेज़ इकट्ठा करने में दस दिन लग गए।बेटे का उदाहरण देकर सवाल और गहरा कर दियागिरिधारी यादव ने अपने बेटे का उदाहरण देते हुए बताया कि उनका बेटा अमेरिका में है, वो कैसे एक महीने के अंदर इस प्रक्रिया में भाग ले सकता है।उन्होंने सवाल उठाया कि 'अगर मुझे सच बोलने की आज़ादी नहीं, तो सांसद क्यों बना हूं?'उनका कहना है कि इसके लिए कम से कम छह महीने का समय दिया जाना चाहिए था।विधानसभा में भी उठा मुद्दा, नीतीश और तेजस्वी फिर आमने-सामनेइस मुद्दे ने सिर्फ संसद ही नहीं, बिहार विधानसभा को भी गर्मा दिया है। वहां भी मानसून सत्र में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और विपक्ष के नेता तेजस्वी यादव के बीच तीखी बहस देखने को मिली।सत्तापक्ष जहां इसे तकनीकी सुधार बता रहा है, वहीं विपक्ष इसे गरीबों और ग्रामीण वोटर्स के खिलाफ साजिश बता रहा है।आयोग की सफाई, लेकिन सवाल बाकी हैंचुनाव आयोग ने साफ किया है कि 20 जुलाई को जिन वोटर्स के नाम को लेकर सवाल हैं, उनकी सूची राज्य के 12 प्रमुख दलों के ज़िला अध्यक्षों और 1.5 लाख बीएलए यानी बूथ लेवल एजेंट्स के साथ साझा कर दी गई है।मकसद ये है कि बाकी बचे लोगों के फॉर्म इकट्ठा करके उनका नाम हटने से रोका जा सके।बड़ी चुनौती है कि अब इतने कम समय में सब कुछ कैसे होगा?अब सवाल ये है कि जब इतने बड़े पैमाने पर लोग शामिल नहीं हो पाए हैं, तो क्या दो दिन में ये प्रक्रिया पूरी हो पाएगी?बिहार जैसे राज्य में, जहां कनेक्टिविटी की समस्या, प्रवासी मज़दूरों की बड़ी संख्या और सीमित संसाधन हमेशा से चुनौती रहे हैं, वहां इतना कम समय देकर करोड़ों लोगों की वोटिंग की बुनियादी व्यवस्था में बदलाव करना क्या उचित है?वोट किसी का और हक किसका!ये मसला किसी पार्टी, सरकार या संगठन का नहीं, बल्कि करोड़ों आम लोगों के हक का है।बिहार का गांव हो या शहर, युवा हो या बुजुर्ग, हर वो शख्स जिसके पास वोट देने का अधिकार है, अगर वो एक कागज़ की कमी की वजह से अपने अधिकार से वंचित हो जाए, तो ये सिर्फ प्रशासनिक चूक नहीं बल्कि लोकतंत्र की नींव पर सीधा सवाल बन जाता है।SIR एक अच्छा प्रयास हो सकता था, अगर इसे वक्त देकर, जानकारी फैलाकर और सहूलियतों के साथ लागू किया जाता। लेकिन आज ये लाखों लोगों के मताधिकार को छीनने वाला संकट बन गया है।आप क्या सोचते हैं इस खबर को लेकर, अपनी राय हमें नीचे कमेंट्स में जरूर बताएँ। Comments (0) Post Comment
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